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असि॑ य॒मोऽअस्या॑दि॒त्योऽअ॑र्व॒न्नसि॑ त्रि॒तो गुह्ये॑न व्र॒तेन॑। असि॒ सोमे॑न स॒मया॒ विपृ॑क्तऽआ॒हुस्ते॒ त्रीणि॑ दि॒वि बन्ध॑नानि ॥१४ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असि॑। य॒मः। असि॑। आ॒दि॒त्यः। अ॒र्व॒न्। असि॑। त्रि॒तः। गुह्ये॑न। व्र॒तेन॑। असि॑। सोमे॑न। स॒मया॑। विपृ॑क्त॒ इति॒ विऽपृ॑क्तः। आ॒हुः। ते॒। त्रीणि॑। दि॒वि। बन्ध॑नानि ॥१४ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:29» मन्त्र:14


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अर्वन्) वेगवान् अग्नि के समान जन ! जिससे तू (गुह्येन) गुप्त (व्रतेन) स्वभाव तथा (त्रितः) कर्म, उपासना, ज्ञान से युक्त (यमः) नियमकर्त्ता न्यायाधीश के तुल्य (असि) है, (आदित्यः) सूर्य के तुल्य विद्या से प्रकाशित जैसा (असि) है, विद्वान् के सदृश (असि) है, (सोमेन) ऐश्वर्य के (समया) निकट (विपृक्तः) विशेषकर संबद्ध (असि) है। उस (ते) तेरे (दिवि) प्रकाश में (त्रीणि) तीन (बन्धनानि) बन्धनों को अर्थात् ऋषि, देव, पितृ ऋणों के बन्धनों को (आहुः) कहते हैं ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम को योग्य है कि न्यायाधीश, सूर्य और चन्द्रमा आदि के गुणों से युक्त होवें, जैसे इस संसार के बीच वायु और सूर्य के आकर्षणों से बन्धन हैं, वैसे ही परस्पर शरीर, वाणी, मन के आकर्षणों से प्रेम के बन्धन करें ॥१४ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

(असि) (यमः) नियन्ता न्यायाधीश इव (असि) (आदित्यः) सूर्य्यवद्विद्यया प्रकाशितः (अर्वन्) वेगवान् वह्निरिव वर्त्तमानजन (असि) (त्रितः) त्रिभ्यः (गुह्येन) गुप्तेन (व्रतेन) शीलेन (असि) (सोमेन) ऐश्वर्येण (समया) समीपे (विपृक्तः) विशेषेण सम्बद्धः (आहुः) कथयन्ति (ते) तव (त्रीणि) (दिवि) प्रकाशे (बन्धनानि) ॥१४ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे अर्वन् ! यतस्त्वं गुह्येन व्रतेन त्रितो यम इवास्यादित्य इवासि, विद्वन्निवासि, सोमेन समया विपृक्तोऽसि, तस्य ते दिवि त्रीणि बन्धनान्याहुः ॥१४ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः ! युष्माभिर्न्यायाधीशादित्यसोमादिगुणैर्भवितव्यम्। यथाऽस्य संसारस्य मध्ये वायुसूर्य्याकर्षणैर्बन्धनानि सन्ति, तथैव परस्परस्य शरीरवाङ्मनआकर्षणैः प्रेमबन्धनानि कर्त्तव्यानि ॥१४ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही सूर्यचंद्राप्रमाणे न्यायाधीश बना. जसे या जगात वायू व सूर्य यांच्यात आकर्षणाचे बंधन असते, तसेच शरीर, मन, वाणी यांनी एकमेकांच्या आकर्षणाचे (प्रेमाचे) बंधन असावे.